आदतन

आज कल कुछ ज्यादा ही खुश रहती हूँ।

सुबह उठती हूँ तो बाहर नयी-नयी सी धूप होती है, 
और अंदर चैत्र की ठंडक।
रात को आधी छोड़ी हुई किताब इंतज़ार करती रहती है
अंदर से आवाज आती है,
"मन्या, तूने चाय पी ली क्या?"

कभी मेज पे पड़ी कलम पुकारती है
तो उठा भी लेती हूँ,
अक्सर लिख नहीं पाती
मगर अफ़सोस नहीं होता।
पढ़ती हूँ,
कुछ काम करती हूँ,
थोड़ा सा सो लेती हूँ।
शाम को बाहर निकलती हूँ तो कोई न कोई मिल ही जाता है 
वो ही सही, कम से कम अकेलापन महसूस नहीं होता।
रात में केसरिया चाँद को देखते देखते नींद मुझे अपना बना लेती है ।

आज कल बड़ी खुश रहती हूँ-
फिर ख़याल आता है
कहीं ज़िंदगी मेरा मज़ाक तो नहीं उड़ा रही?


अब इतना आराम है
बस ये आदत न बन जाए।

Comments

  1. वाह!! निहायती खूबसूरत!!

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  2. अच्छी आदत है भई, बहुत कम लोगों को नसीब होती है, लग जाने दो... तकल्लुफ किस बात का? बढिया.

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